विवेक झा, भोपाल | 9 जुलाई 2025 को देश ने एक ऐतिहासिक क्षण देखा, जब केंद्र सरकार की आर्थिक, श्रम और सामाजिक नीतियों के खिलाफ 20 करोड़ से अधिक कामगार, कर्मचारी और अधिकारी हड़ताल पर उतरे। इस हड़ताल का व्यापक असर पूरे देश में देखने को मिला और इसे विश्व की सबसे बड़ी आम हड़ताल के रूप में भी याद किया जाएगा।
राजधानी भोपाल इस आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बनी, जहां रंग-बिरंगे झंडों, बैनरों, प्लेकार्ड्स और लाल टी-शर्टों में सजे हजारों कर्मचारी और मजदूरों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ नारे लगाते हुए रैली निकाली और सार्वजनिक सभा में जोरदार तरीके से अपनी बात रखी।
हड़ताल के कारण सरकारी व निजी संस्थानों में कार्य पूरी तरह ठप
बैंकिंग, बीमा, टेलीफोन, केंद्र सरकार के कार्यालय, डॉक-तार, आयकर, पोस्टल, बीएसएनएल, कोयला, परिवहन, बीमा, ऑटोमोबाइल, एनएफएल, बीएचईएल, स्कीम वर्कर, कृषि मजदूर, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव, आंगनवाड़ी, आशा-उषा कार्यकर्ता, संविदा कर्मी सहित कई क्षेत्रों में पूरा कामकाज पूरी तरह ठप रहा।
बैंक शाखाओं में ताले लटकते नजर आए, बीमा कार्यालयों में कामकाज शून्य रहा और BSNL जैसी संचार सेवा संस्थाओं में सन्नाटा पसरा रहा। इससे स्पष्ट हो गया कि कामकाजी वर्ग सरकार की नीतियों से अब पूरी तरह क्षुब्ध हो चुका है।
भोपाल में हुआ जनसैलाब का साक्षात दृश्य
सुबह 11 बजे, इंदिरा प्रेस कॉम्प्लेक्स, भोपाल स्थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा के सामने एकत्र हुए हजारों हड़ताली कर्मचारी जब नारेबाजी करते हुए रैली में आगे बढ़े, तो पूरा क्षेत्र जनचेतना का प्रतीक बन गया। रैली दैनिक भास्कर, नवभारत, जागरण कार्यालयों से गुजरते हुए फिर से सभा स्थल पर लौटी और विशाल जनसभा में तब्दील हो गई।
इस रैली में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी उल्लेखनीय रही। युवाओं से लेकर बुज़ुर्ग तक, सबने ‘केंद्र सरकार होश में आओ’, ‘मजदूर-किसान एकता ज़िंदाबाद’, ‘पुरानी पेंशन बहाल करो’, जैसे नारों से माहौल को जोशीला बनाए रखा। यह प्रदर्शन सिर्फ एक विरोध नहीं, बल्कि एक चेतावनी था – जन विरोधी नीतियों को अब देश बर्दाश्त नहीं करेगा।
सभा में उठीं तीखी आवाजें – “अब और नहीं सहेंगे”
सभा को संबोधित करते हुए विभिन्न ट्रेड यूनियनों के वरिष्ठ पदाधिकारियों— वी.के. शर्मा, बी डी गौतम, एस एस मोर्या, प्रमोद प्रधान, आर ए शर्मा, यशवंत पुरोहित, दीपक रत्न शर्मा, पूषण भट्टाचार्य, चंद्रशेखर परसाई, संजय मिश्रा, एच एस ठाकुर, आर एस बघेल, शैलेंद्र कुमार शैली, एस सी जैन, संजय कुदेशिया, भगवान स्वरूप कुशवाहा आदि ने सरकार की आर्थिक नीतियों की तीखी आलोचना की।
वक्ताओं ने कहा कि केंद्र सरकार की नीतियाँ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाली हैं, जबकि आम नागरिक, मजदूर, किसान और कर्मचारी लगातार हाशिए पर धकेले जा रहे हैं। बेरोजगारी चरम पर है, रोजगार घट रहे हैं और युवा निराशा की स्थिति में हैं।
उन्होंने कहा कि सरकार ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस’ के नाम पर काम के घंटे बढ़ाकर मजदूरों का शोषण कर रही है, लेबर कोड के जरिए यूनियन अधिकार छीन रही है, और सार्वजनिक संस्थानों का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है।
हड़ताल की प्रमुख मांगें – सिर्फ मजदूरों की नहीं, जनता की आवाज़
इस हड़ताल के ज़रिए 17 सूत्रीय मांगों को सामने रखा गया जिनमें मुख्यतः शामिल हैं:
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लेबर कोड्स की वापसी,
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₹26,000 का न्यूनतम वेतन,
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पुरानी पेंशन योजना की बहाली,
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आउटसोर्सिंग व फिक्स टर्म जॉब पर रोक,
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मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण,
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आवश्यक वस्तुओं पर जीएसटी खत्म करना,
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सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का निजीकरण रोकना,
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सभी कृषि उपज पर MSP की कानूनी गारंटी,
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मनरेगा में वृद्धि और शहरी रोजगार गारंटी,
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मुफ्त स्वास्थ्य और शिक्षा की गारंटी,
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प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा और
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व संविधानिक मूल्यों की रक्षा।
बैंकिंग यूनियनों ने भी दिखाई एकजुटता, 13 सूत्रीय मांगे रखीं
मध्यप्रदेश बैंक एम्प्लाईज एसोसिएशन के महासचिव वी. के. शर्मा ने जानकारी दी कि बैंकिंग क्षेत्र की यूनियनें—AIBEA, AIBOA, BEFI—ने केंद्र की वित्तीय नीतियों का विरोध करते हुए 13 बिंदुओं पर आधारित मांगें रखीं, जिनमें प्रमुख हैं:
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सार्वजनिक बैंकों को मजबूत करना,
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बैंकों का निजीकरण और विनिवेश रोकना,
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आउटसोर्सिंग पर प्रतिबंध,
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नई भर्तियों की मांग,
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पुरानी पेंशन योजना की बहाली,
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सेवा शुल्क में कटौती और
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जीवन व स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी हटाना।
उन्होंने चेताया कि अगर सरकार इन मांगों पर गंभीर नहीं हुई, तो बैंक कर्मियों का आंदोलन और भी उग्र रूप ले सकता है।
आगे क्या? – अब सड़क से संसद तक संघर्ष
सभा के समापन में वक्ताओं ने ऐलान किया कि यदि सरकार ने इन मांगों पर अमल नहीं किया, तो देशभर में धरना, घेराव, जन सभाओं के साथ अगली बड़ी राष्ट्रव्यापी हड़ताल का ऐलान होगा। यह आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक जनता के हक, श्रमिक अधिकार, और सामाजिक न्याय की बहाली नहीं होती।
9 जुलाई की यह हड़ताल केवल मजदूरों का प्रतिरोध नहीं थी, बल्कि एक समग्र सामाजिक चेतना का विस्फोट था। यह एक स्पष्ट संदेश है कि जब जनता के पेट पर लात मारी जाएगी, तो जवाब सड़कों से आएगा। और अगर सरकार चुप रही, तो आने वाले समय में यह आंदोलन और भी व्यापक और निर्णायक हो जाएगा।