मध्य प्रदेश, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अंतर-जातीय विवाह की संभावना बेहद कम पाई गई
विवेक झा, भोपाल।
भारत जैसे सामाजिक रूप से विविध और सांस्कृतिक रूप से परंपरागत देश में विवाह को सिर्फ दो व्यक्तियों का निजी निर्णय नहीं, बल्कि दो परिवारों, समुदायों और सामाजिक पहचान की सांस्कृतिक स्वीकृति के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन अब तस्वीर थोड़ी बदल रही है। हाल ही में प्रकाशित एक शोध अध्ययन में यह सामने आया है कि आधुनिकता, शिक्षा, शहरीकरण और सामाजिक उदारीकरण के चलते भारत में अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाहों में वृद्धि हो रही है।
यह अध्ययन कुमुदिन दास, के.सी. दास, टी.के. रॉय और पी.के. त्रिपाठी द्वारा तैयार किया गया है, जो 2005-06 में किए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 (NFHS-III) के आंकड़ों पर आधारित है। इस सर्वे में देशभर के 43,102 विवाहित जोड़ों की जानकारी संकलित की गई थी।
भारत में अंतर-जातीय विवाहों की स्थिति
अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 10 प्रतिशत विवाह अंतर-जातीय होते हैं। इनमें से आधे मामलों में महिलाएँ अपनी जाति से ऊँची जाति के पुरुषों से विवाह करती हैं, जबकि शेष मामलों में महिलाएँ ऊँची जाति की होकर निचली जाति के पुरुषों से विवाह करती हैं। यह आँकड़ा भले ही छोटा लगे, लेकिन यह देश में सामाजिक संरचनाओं में धीरे-धीरे आ रहे बदलाव का स्पष्ट संकेत देता है।
अध्ययन बताता है कि अंतर-जातीय विवाहों की सबसे अधिक दर पश्चिमी भारत में (17%) देखी गई है। राज्यों के हिसाब से देखें तो गोवा (26.7%), मेघालय (25%), पंजाब (22.3%), केरल (21.3%) और महाराष्ट्र (17.7%) जैसे राज्यों में ये शादियाँ अधिक होती हैं। इसके विपरीत राजस्थान (2.3%), मध्य प्रदेश (3.5%), छत्तीसगढ़ (3.2%), और बिहार (4.6%) जैसे राज्यों में ये दरें बेहद कम हैं।
अंतर-धार्मिक विवाह: अब भी सामाजिक अस्वीकृति के घेरे में
जहाँ जातिगत सीमाओं में थोड़ी शिथिलता आई है, वहीं अंतर-धार्मिक विवाहों की संख्या अब भी अत्यंत कम (सिर्फ 2.1%) है। कई राज्यों में यह दर 1 प्रतिशत से भी कम है, जैसे जम्मू-कश्मीर (0.7%), राजस्थान (0.7%), और बिहार (1.2%)। हालांकि, पंजाब (7.3%), मणिपुर (7.6%), अरुणाचल प्रदेश (9.2%) और सिक्किम (8.1%) जैसे राज्यों में इस प्रकार की विवाह दरें अपेक्षाकृत अधिक हैं।
अंतर-धार्मिक विवाहों को लेकर अब भी समाज में भारी असहमति है, और कई बार यह हिंसा का कारण भी बनता है — विशेषकर उत्तर भारत में जहाँ ऑनर किलिंग जैसी घटनाएँ सामने आती रही हैं।
कौन लोग कर रहे हैं ये विवाह?
शोधकर्ताओं ने यह विश्लेषण भी किया कि कौन-से सामाजिक-आर्थिक कारक इन विवाहों को प्रभावित करते हैं। उनके अनुसार:
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शहरी क्षेत्रों में अंतर-जातीय विवाहों की दर अधिक (10.9%) है बनिस्बत ग्रामीण क्षेत्रों (9.4%) के।
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दूसरी बार विवाह करने वाले पुरुषों में ये दर अधिक पाई गई (11.2%)। शोधकर्ताओं का मानना है कि पुनर्विवाह में जातिगत प्रतिबंध अपेक्षाकृत कम होते हैं।
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उच्च शिक्षित पुरुषों और महिलाओं में, अपेक्षा के विपरीत, अंतर-जातीय विवाहों की संभावना कम पाई गई। शिक्षित वर्ग अभी भी जातिगत दायरे में ही विवाह करना पसंद करता है।
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अमीर तबकों में ये विवाह ज्यादा होते हैं — जैसे कि सबसे अमीर वर्ग में 10.5% जबकि सबसे गरीब में 8.6%।
इसी तरह, अंतर-धार्मिक विवाहों की दर भी शहरी, अमीर, और मीडिया एक्सपोज़र वाले वर्गों में थोड़ी अधिक पाई गई। महिला की शिक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ इस प्रकार की शादियों की दर थोड़ी बढ़ती है, लेकिन यह अंतर बहुत बड़ा नहीं है।
क्या बदल रहा है?
शोध में यह भी सामने आया कि अंतर-जातीय विवाह करने की प्रवृत्ति नई पीढ़ी में अधिक है। 10 साल से कम समय पूर्व हुए विवाहों में यह दर 10.2% है, जबकि 20 साल से पुराने विवाहों में यह गिरकर 8.9% रह जाती है। यह दर्शाता है कि नई पीढ़ी जातिगत दायरों को तोड़ने में अधिक इच्छुक है।
हालांकि, शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि शिक्षा, आधुनिकता और शहरीकरण जैसे कारक हमेशा निर्णायक भूमिका नहीं निभाते। सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्य कई बार शिक्षा से अधिक प्रभावी होते हैं।
राज्यों में अंतर
शोधकर्ताओं ने लॉजिस्टिक रिग्रेशन मॉडल के ज़रिए यह भी दिखाया कि कुछ राज्यों में अंतर-जातीय विवाह की संभावना उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों की तुलना में दो से तीन गुना अधिक है। उदाहरण के तौर पर:
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पंजाब और हरियाणा: संभावना 2.5 गुना अधिक
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महाराष्ट्र: 2.27 गुना अधिक
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केरल: 2.94 गुना अधिक
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कर्नाटक: 2.01 गुना अधिक
इसके विपरीत, राजस्थान, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में अंतर-जातीय विवाह की संभावना बेहद कम पाई गई।
सामाजिक स्वीकार्यता और आगे का रास्ता
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि भारतीय समाज अभी भी पारंपरिक मूल्यों से बंधा हुआ है, विशेष रूप से जब बात विवाह की आती है। जाति और धर्म जैसे कारक अब भी जीवनसाथी के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, यह बदलाव की शुरुआत है और इसे सकारात्मक दिशा में बढ़ाने की आवश्यकता है।
कुमुदिन दास, के.सी. दास, टी.के. रॉय और पी.के. त्रिपाठी का मानना है कि यदि अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाहों को मीडिया और सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन दिया जाए, तो समाज में सामाजिक समानता और समरसता की भावना को बल मिल सकता है।
सरकार और समाज की भूमिका
भारत सरकार की कुछ योजनाएँ जैसे कि “डॉ. अंबेडकर योजना” (जो अंतर-जातीय विवाह को प्रोत्साहन राशि प्रदान करती है) इस दिशा में सराहनीय पहल हैं। लेकिन ज़रूरत है कि इन योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू किया जाए और ऐसे विवाहों को सामाजिक गौरव और सम्मान प्रदान किया जाए।
निष्कर्ष
यह अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक बदलाव धीरे-धीरे ही सही, लेकिन भारत में हो रहा है। अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह, जो कभी वर्जित माने जाते थे, अब सामाजिक गतिशीलता और उदारता के प्रतीक बनते जा रहे हैं।
हालाँकि रास्ता लंबा है, लेकिन अगर युवा पीढ़ी, नीति-निर्माता और मीडिया मिलकर प्रयास करें, तो भारत को एक ऐसा समाज बनने में देर नहीं लगेगी जहाँ विवाह सिर्फ प्रेम और समझदारी का नाम होगा — न कि जाति और धर्म की दीवारों का बंधन।
(यह रिपोर्ट NFHS-3 के आंकड़ों और कुमुदिन दास, के.सी. दास, टी.के. रॉय व पी.के. त्रिपाठी द्वारा लिखित शोधपत्र “Dynamics of Inter-Religious and Inter-Caste Marriages in India” पर आधारित है।)